
गलत धारणा- भारत में लोकतंत्र है |
आप
जब संगठन में काम करने वाले हैं तो आपको कुछ धारणाओं पर स्वयं भी मनन करना है. 'लोकतंत्र' ऐसी ही एक धारणा है |
अभी भारत में लोकतंत्र नहीं है | यह जिसे व्यवस्था में जमे लोग 'लोकतंत्र' कहते हैं | यह एक छलावा है | यह महज एक 'वोटतंत्र' है | इसका गलत ढंग से महिमामंडन करके हमें
ठगा जा रहा है और बार बार दोहराने से हमें गलतफहमी भी हो रही है कि यहाँ लोकतंत्र
है | तो फिर माजरा क्या है ?
सत्ता जब भारतीयों को दी गई तो व्यवस्था वही रही | पुरानी अंग्रेजी
व्यवस्था या system. भारत के लिए एक शुद्ध भारतीय
व्यवस्था की रचना टेढ़ा काम था और उसे टाल दिया गया, सत्ता
प्राप्ति की जल्दी में, लालसा में | हमें बस एक अधिकार दिया
गया कि हम इस व्यवस्था में काम करने वालों को चुन सकते हैं- वोट तंत्र.
लेकिन यह तंत्र हमारे नियंत्र में काम करे | हमारे हितों के लिए काम
करे | इसकी पुख्ता व्यवस्था नहीं की गई यानी 'लोकतंत्र'
स्थापित करने का काम अधूरा रह गया. अब इस स्थिति में जो चालाक हैं,
पैसे वाले हैं, वे तंत्र पर वैसे ही कब्ज़ा
जमकर बैठ गए हैं, जैसे किसी प्लाट पर.
2005
में पहली बार भारत में लोकतंत्र की आहट, पदचाप
सुनाई दी है और अरुणा राय को उसका श्रेय जाता है. सूचना के अधिकार ने संभावना पैदा
की है कि हम लोकतंत्र स्थापित कर पायें.
लेकिन सत्ता में जमे लोग, व्यवस्था
में मलाई खाते लोग कभी नहीं चाहेंगे कि इस अधिकार का प्रयोग जनता करे और तंत्र की
मालिक बन जाय | जैसा संविधान में लिखा है | वे इस अधिकार के प्रयोग को बकवास कह
रहे हैं, useless कह रहे हैं | black-mailing कह रहे हैं | विकास में रोड़ा कह रहे हैं. और प्रचार माध्यम भी चुप बैठे
हैं. न्यायपालिका तो बल्कि विरोध में है !
ऐसे हालात में संगठन एक
ऐसा अलग रास्ता है जो सांप को मार देगा और लाठी भी नहीं तोड़ेगा !
आपको हर उस मंच पर यह बात
कहना है कि अभी भारत में लोकतंत्र नहीं है
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bbc न्यूज़ से
एक बात तो साफ़ है कि भारतीय लोकतंत्र ना केवल ख़तरे में है. 2019 के चुनाव में दांव पर बहुत कुछ लगा है लेकिन उम्मीद बहुत कम है.
ऐसा क्यों है, क्योंकि सबसे बड़ा सवाल यही है कि लोकतंत्र बचेगा या नहीं. पिछले कुछ सालों में जो माहौल बना है उससे बीते 10-15 सालों में जो उम्मीदें जगाई थीं वो सब दांव पर लगा हुआ है.
heading हम क्या खोते जा रहे हैं?
मुझे ऐसा लग रहा है कि हमारे लोकतंत्र के साथ कुछ ऐसा हो रहा है जो लोकतांत्रिक आत्मा को ख़त्म कर रहा है. हम गुस्से से उबलते दिल, छोटे दिमाग और संकीर्ण आत्मा वाले राष्ट्र के तौर पर निर्मित होते जा रहे हैं.
कुछ मायने में लोकतंत्र आजादी, उत्सव का नाम है, ऐसी व्यवस्था में लोग कहां जाएंगे इसे जानना महत्वपूर्ण होता है न कि पीछे कहां से आएं हैं.
इस लोकतंत्र में हम क्या खोते जा रहे हैं, इस पर एक नज़र डाल लेते हैं. आप में से कितने लोग नेशनलिस्ट हैं. हाथ ऊपर कीजिए. जिन लोगों ने हाथ ऊपर किए हैं उनमें से कितने लोगों के पास सर्टिफिकेट है, ये दिखाने के लिए आप नेशनलिस्ट हैं. यानी हमारी नेशनलिज्म हमसे ले ली गई है.
heading सत्य से छेड़छाड़
पहली चीज़ जो हमसे ली गई है वो हमारी अपनी नेशनलिज़्म है. यहां ये मान लें कि हम सब लोग नेशनलिस्ट हैं, अब यह साबित करने की चीज़ हो गई है. नेशनलिज़्म का इस्तेमाल लोगों को बांटने में किया जा रहा है. जितनी भी राष्ट्रवाद की बात कर लें पर वो चला गया है आपके हाथ से.
अब सत्य की बात. सच है कि हर सोसायटी में प्रोपगैंडा होता है. हर सरकार अपने हिसाब से सत्य के साथ छेड़छाड़ करती है. हर सरकार अपने हिसाब से माहौल बनाना चाहती है.
लेकिन क्या भारतीय लोकतंत्र में आपने पहली बार यह महसूस नहीं किया है कि ज्ञान के उत्पादन का उद्देश्य सत्य नहीं है. पब्लिक डिस्कोर्स का ऐसा ढांचा बनाया जा रहा है जो सोचने की समझ की ज़रूरत को पूरी तरह ख़त्म करती है. ये झूठ और मिथ्या की बात नहीं है. आप सोचिए नहीं, सवाल मत पूछिए वरना आप एंटी नेशनल हैं. तो सत्य भी गया.
headingबात आज़ादी की
अब बात लोकतंत्र के सबसे अहम पहलू आज़ादी की. हमें यहां ध्यान रखना होगा कि आनंद तेलतुंबड़े और सुधा भारद्वाज जैसे लोग ग़रीब लोगों की मदद के चलते जेल में हैं. वास्तविकता यही है कि भारत की कोई भी सरकार, चाहे वो किसी भी पार्टी की रही हो, सिविल लिबर्टीज के उद्देश्यों की बात नहीं करती.
नागरिक स्वतंत्रता के मुद्दे पर मौजूदा सरकार विपक्षी पार्टियों को भी साथ लेकर चलना नहीं चाहती ताकि आईपीसी की धारा 295 को ख़त्म नहीं भी किया जाए तो उसमें संशोधन ही हो सके.
लोकतंत्र में बोलना अब ख़तरनाक बात बन गई है. राष्ट्र गया, सत्य गया, स्वतंत्रता गई.
अब बात लोकतंत्र के चौथे स्तंभ फ्री प्रेस की, 19वीं शताब्दी में मौरिस जॉली ने बताया था कि एक लोकप्रिय लोकतांत्रिक नेता प्रेस से क्या चाहता है. मैं ये स्टेटमेंट पढ़ रहा हूं और आप सोचिएगा कि किसकी छवि उभरती है.
heading न्यूट्रल प्रेस
तो ये नेपोलियन तृतीय था जो सोचता था कि उसे किसी प्रतिनिधि की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सारी जनता का प्रतिनिधि वह खुद ही है.
वह कह रहा है, ''मेरी स्कीम के मुताबिक प्रेस को न्यूट्रल प्रेस के ज़रिए ही बनाया जा सकता है.
पत्रकारिता में काफी ताक़त होती है, इसलिए क्या आप जानते हैं कि सरकार को क्या करना चाहिए. सरकार को खुद पत्रकारिता करनी चाहिए. विष्णु की तरह मेरे प्रेस के 100 हाथ होने चाहिए.
इन हाथों के ज़रिए अलग अलग तरह के सारे विचार होने चाहिए. जो अपनी तरह बोलना चाहते हों उन्हें मेरी तरह बोलना चाहिए. जो अपनी तरह चलना चाहते हैं उन्हें मेरी तरह चलना चाहिए. उनके अपने विचार मेरे विचार से प्रभावित होना चाहिए. मैं सभी आंतरिक और बाहरी नीति पर सलाह दूंगा.
मैं लोगों को जगाऊंगा और सुलाऊंगा. मैं उन्हें भरोसा दूंगा और कंफ्यूज भी रखूंगा. मैं ही सत्य बताऊंगा और असत्य भी.''
किसकी छवि उभरती है.
heading धर्म की बात
धर्म की बात करें तो आधुनिक भारत में धर्म के आइडिया में तेज़ी से बुनियादी बदलाव हो रहा है.
इसके तीन पहलू हैं- हम देखते हैं कि सत्ता शक्ति की सेवा में धर्म का इस्तेमाल हो रहा है, धर्म के प्रतीक सत्ता के सामने नतमस्तक हो रहे हैं.
दूसरा पहलू है कि ये सोच-बड़बोलापन बढ़ रहा है कि हम अपने भगवान की रक्षा करेंगे, भगवान का काम हमारी रक्षा करना नहीं है.
तीसरी अहम बात कि सभी धर्म को एक ही सत्ता संरचना में आना होगा, धर्म को ऐसी एकरूपता दे दी जाए कि वो एक संगठित शक्ति में बदल जाए.
दरअसल धर्म हमें क्षुद्र पहचानों से ऊपर उठाकर व्यापकता की ओर ले जाता है लेकिन अब धर्म को एक शिनाख़्ती पहचान में बदल दिया गया है- जिसके कारण किसी भी व्यक्ति पर हमला किया जा सकता है.
headingसभ्यता की बात
कुछ मामलों में समाज तो हमेशा से थोड़ा असभ्य रहा है लेकिन सभ्यता की बात सत्ता के सबसे ताक़तवर लोगों से तय होती है. एक तरह से देखें तो ये उनका इकलौता काम है.
उनका काम है कि वे तय करें कि कब क्या बोला जाना सही होगा, क्या सही है और क्या ग़लत है? लेकिन जब वही लोग धमकाने का काम करें, वही इस कमरे में जो लोग हैं उनमें से ज़्यादातर लोगों को एंटी नेशनल ठहराएं तो फिर क्या बचा रह गया है. धर्म और सभ्यता भी गई.
पिछले पांच साल के दौरान रिपोर्ट कार्ड की बात कही जा रही थी तो सबसे अहम बात यही है कि बीते पांच साल के दौरान में भारतीय आत्मा को छलनी किया गया है. वे हर उस बात के साथ खड़े दिखाई दिए हैं जो भारतीय नहीं है. वे हर उस भरोसे के ख़िलाफ़ खड़े रहे हैं जो भारतीय लोकतंत्र अपने नागरिकों को एक दूसरे के लिए देता है.
अगर पांच साल में बनी ये संस्कृति जारी रही तो आप अपनी आज़ादी, सच्चाई, अपने धर्म और यहां तकअपने देश को वापस नहीं लौटा पाएंगे. यही 2019 के चुनाव की सबसे बड़ी चुनौती है.
हालांकि इन सबके बाद प्रताप भानु मेहता ने ये भी कहा कि उन्हें अभी भी भारतीय लोकतंत्र से काफ़ी उम्मीदें हैं. जब उनसे पूछा गया कि क्या बीते पांच साल में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ तो उन्होंने बहुत कुछ अच्छा भी हुआ है, मसलन वे जीएसटी के साथ हैं लेकिन उसे भी ठीक ढंग से लागू नहीं किया गया है.
उन्होंने ये भी कहा कि भारत में लोकतंत्र चल रहा है और भारतीय इकॉनमी की ग्रोथ 6.6 फ़ीसदी से ज्यादा है. तो चीज़ें चल भी रही हैं.
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wikipedia se
लोकतंत्र (शाब्दिक अर्थ "लोगों का शासन", संस्कृत में लोक, "जनता" तथा तंत्र, "शासन",) या प्रजातंत्र
लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार यह "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन है"। यह एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। यह शब्द लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक राज्य दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। लेकिन अलग-अलग देशकाल और परिस्थितियों में अलग-अलग धारणाओं के प्रयोग से इसकी अवधारणा कुछ जटिल हो गयी है। यद्यपि लोकतंत्र शब्द का प्रयोग राजनीतिक सन्दर्भ में किया जाता है, किन्तु लोकतंत्र का सिद्धान्त दूसरे समूहों और संगठनों के लिये भी संगत है। मूलतः लोकतंत्र भिन्न-भिन्न सिद्धान्तो के मिश्रण से बनते है।
लोकतंत्र की अवधारणा
प्रत्येक राज्य चाहे वह उदारवादी हो या समाजवादी या साम्यवादी, यहां तक कि सेना के जनरल द्वारा शासित पाकिस्तान का अधिनायकवादी भी अपने को लोकतांत्रिक कहता है। सच पूछा जाए तो आज के युग में लोकतांत्रिक होने को दावा करना एक फैशन सा हो गया है।
लोकतंत्र की पूर्णतः सही और सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। लोकतंत्र के संबंध में अलग-अलग धारणाएं है। “लोकतंत्र एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली है जो पदाधिकारियों को बदल देने के नियमित सांविधानिक अवसर प्रदान करती है और एक ऐसे रचनातंत्र का प्रावधान करती है जिसके तहत जनसंख्या का एक विशाल हिस्सा राजनीतिक प्रभार प्राप्त करने के इच्छुक प्रतियोगियों में से मनोनुकूल चयन कर महत्त्वपूर्ण निर्णयों को प्रभावित करती है।”
लोकतंत्र ‘एक मात्र ऐसा रचनातंत्र है जिसमें सरकारों को चयनित और प्राधिकृत किया जाता है अथवा किसी अन्य रूप में कानून बनाए और निर्णय लिए जाते हैं।‘ वास्तव में, लोकतंत्र मूलतः नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए सहभागी राजनीति से संबद्ध प्रणाली है।
लोकतंत्र के कुछ मौलिक उद्देश्य एवं विशेषताएं निम्न हैं।
(1) जनता की संपूर्ण और सर्वोच्च भागीदारी, (2) उत्तरदायी सरकार, (3) जनता के अधिकारों एवं स्वतंत्रता की हिफाजत सरकार का कर्तव्य होना, (4) सीमित तथा सांविधानिक सरकार, (5) भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने, सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय का वादा, (6) निष्पक्ष तथा आवधिक चुनाव, (7) वयस्क मताधिकार, (8) सरकार के निर्णयों में सलाह, दबाव तथा जनमत द्वारा जनता का हिस्सा, (9) जनता के द्वारा चुनी हुई प्रतिनिधि सरकार, (10) निष्पक्ष न्यायालय, (11) कानून का शासन, (12) विभिन्न राजनीतिक दलों तथा दबाव समूहों की उपस्थिति, (13) सरकार के हाथ में राजनीतिक शक्ति जनता की अमानत के रूप में।
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नवभारत टाइम्स शुरुआत के लिय अच्छा है
लोकतन्त्र का शाब्दिक अर्थ होता है ऐसी व्यवस्था जिसका संचालन लोगों या उनके चुने हुए प्रतिनिधयों के दवारा किया जाता हो. लेकिन आज हमारी कांग्रेस सरकार के सांसद सत्ता के नशे में इतने डूब चुके हैं की उन्होने लोकतन्त्र की अपनी ही एक परिभाषा बना ली है. उनके अनूसार सिर्फ़ सांसद ही लोकतंत्र के एकमात्र पहलू है आम लोगों की इसमे कोई जगह नही है. इसलिए आम जनता का भ्रष्टाचार के विरुद्ध हर एक कदम उन्हे ग़लत लगता है और अपने मंत्रियों का हर एक भ्रष्टाचार उन्हे सही लगता है. इसके लिए चाहे लोकतंत्र या संविधान की ही परिभाषा बदलनी पड़े. ख़तरनाक स्तिथी तो यह है देश के प्रधानमंत्री भी उन्ही की भाषा बोल रहे हैं. जनता के पैसे को लूटने की लिए ये सभी मंत्री और सांसद इतने नीचे गिर चुके हैं की नैतिकता की बात भी सुनने को तैयार नही हैं. और अपनी मर्ज़ी से देश का शोषण किए जा रही हैं. इनके मुताबिक जब जनता ने इन्हे चुनकर पाँच सालों के लिए संसद में भेज दिया है तो यह अपनी मर्ज़ी से इस तरह देश को चलाएँगे जैसे कोई देश न हो बल्कि कोई एक प्राइवेट कंपनी हो और ये उसके मॅनेजर हो और पाँच सालों तक अपनी मनमानी करते रहेंगें और अगर कोई भी इनको रोकेगा तो उसे गैर लोकत्नांट्रिक और तानाशाह बताएँगे. ये स्थिति आने वाले समय में देश के लिए बहुत ही ख़तरनाक हो जाएगी क्यूंकि चुनाव में लोग दूसरी पार्टी को वोट देकर सरकार तो बदल देंगे किंतु वो सरकार भी इनकी सीख पर ही चलेगी, आख़िर मुफ़्त का माल किसे अच्छा नही लगता.
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लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ है "लोगों का शासन"। संस्कृत में लोक का अर्थ है, "जनता" तथा तंत्र का अर्थ है, "शासन" या प्रजातंत्र। यह एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है। यह शब्द लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक राज्य दोनों के लिये प्रयुक्त होता है।
भारत, दुनिया में सबसे बड़ा लोकतंत्र है जिसे सदियों से विभिन्न राजाओं, सम्राटों द्वारा शासित और यूरोपियों द्वारा उपनिवेश किया गया। भारत 1947 में अपनी आजादी के बाद एक लोकतांत्रिक राष्ट्र बन गया, उसके बाद भारत के नागरिकों को मतदान देने और उन्हें अपने नेताओं का चुनाव करने का अधिकार दिया गया।
भारत में लोकतंत्र पांच लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर काम करता है ये हैं:-
संप्रभुता: इसका मतलब भारत किसी भी विदेशी शक्ति के हस्तक्षेप या नियंत्रण से मुक्त है।
समाजवादी: इसका मतलब है कि सभी नागरिकों को सामाजिक और आर्थिक समानता प्रदान करना।
धर्मनिरपेक्षता: इसका अर्थ है किसी भी धर्म को अपनाने या सभी को अस्वीकार करने की आजादी।
लोकतांत्रिक: इसका मतलब है कि भारत सरकार अपने नागरिकों द्वारा चुनी जाती है।
गणराज्य: इसका मतलब यह है कि देश का प्रमुख एक वंशानुगत राजा या रानी नहीं है।
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