यह लेख लिखते हुए शर्म महसूस हो रही है। कई बार ऐसा लगता है कि अज्ञानता वरदान है | लेकिन जाने अनजाने में कई चीज़ें ज्ञान के प्रकाश में आ जाती हैं और पीड़ा देती हैं। ऐसी ही एक पीड़ा देने वाली कुरीति है - मृत्युभोज।
आगे का लाइन पढने से पहले सभी सम्मानित पाठको से निवेदन है कि इस लेख के सबसे आखिरी में पीले रंग से कुछ लाइन लिखी है | कृपया उन आखिरी की लाइन को जरुर जरुर पढ़े |
मानव विकास के रास्ते में यह गंदगी कैसे पनप गयी, समझ से परे है। जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर मिलकर वियोग प्रकट करते हैं, परन्तु यहाँ किसी व्यक्ति के मरने पर उसके साथी, सगे-सम्बन्धी भोज करते हैं। मिठाईयाँ खाते हैं। किसी घर में खुशी का मौका हो, तो समझ आता है कि मिठाई बनाकर, खिलाकर खुशी का इजहार करें, खुशी जाहिर करें। लेकिन किसी व्यक्ति के मरने पर मिठाईयाँ परोसी जायें, खाई जायें, इस शर्मनाक परम्परा को मानवता की किस श्रेणी में रखें।
किसी परिजन के मरने पर क्रिया कर्म के साथ मृत्युभोज करने की एक स्थापित कुरीति है। केवल कुछ जाति ऐसा नहीं करती है। बाकी सभी जाति समूह मृत्युभोज करते हैं। इस भोज के अलग-अलग तरीके हैं। कहीं पर यह एक ही दिन में किया जाता है। कहीं तीसरे दिन से शुरू होकर बारहवें-तेहरवें दिन तक चलता है। हमने यहां तक देखा है कि कई लोग श्मशान घाट से ही सीधे भोजन करने चल पड़ते हैं और जमकर मिठाई खाते हैं। हमने तो ऐसे लोगों को सुझाव भी दिया था कि क्यों न वे श्मशान घाट पर ही टेंट लगाकर जीम लें। कहीं-कहीं मोहल्ले के लोग, मित्र और रिश्तेदार भोज में शामिल होते हैं, कहीं गांव, तो कहीं पूरा क्षेत्र। तब यह हैसियत दिखाने का अवसर बन जाता है। आस-पास के कई गाँवों से ट्रेक्टर-ट्रोलियों में गिद्धों की भांति जनता इस घृणित भोज पर टूट पड़ती है। क़स्बों में विभिन्न जातियों की ‘न्यात’ एक साथ इस भोज पर जमा होती है। 60 वर्षों से स्कूल-कॉलेज हम चला रहे हैं, परन्तु शिक्षित व्यक्ति भी इस जाहिल कार्य में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं। इससे समस्या और विकट हो जाती है, क्योंकि अशिक्षित लोगों के लिए इस कुरीति के पक्ष में तर्क जुटाने वाला पढ़ा-लिखा वकील खड़ा हो जाता है।
वास्तविक परम्परा क्या थी :-
लेकिन जब मैंने 80-90 वर्ष के बुज़ुर्गों से इस कुरीति के चलन के बारे में पूछा, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। बुजुर्गो ने बताया कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे और ब्राह्मणों एवं घर-परिवार के लोगों का खाना बनता था। शोक तोड़ दिया जाता था। बस इतना ही था |
शास्त्र भी यही कहते हैं । गरुड़ पुराण में बताया गया है कि किसी भी मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक पानी पीना भी हिन्दुओं के लिए वर्जित है। मुस्लिम परम्परा और ग्रन्थ भी यही कहते हैं। उनमें भी नियत समय तक मृतक के घर ऐसे भोजन को गैर इस्लामी कहा गया है । 12-13 वें दिन के बाद घर की शुद्धि और आत्मा की शांति के लिए कुछ क्रियाकर्मों का प्रावधान है। मुस्लिमों में ऐसा 40 वें दिन पर होता है। घर-परिवार और पंडित-पुरोहित-फ़क़ीरों के लिए भोजन बन जाये, ताकि शोक को औपचारिक रूप से तोड़ा जा सके। इस भारतीय परम्परा का अपना मनोवैज्ञानिक पहलू भी है। जिसे कुछ लोगो ने अपने स्वार्थ के लिए बदल दिया और अब ये परम्परा लोगो की हेसियत से जुड़ गई |
मृत्युभोज का तमाशा :-
पहले तो सिर्फ परिवार के सदस्य खोने का ही दर्द हुआ करता था | लेकिन अब तो परिजन के बिछुड़ने के साथ साथ एक और दर्द जुड़ जाता है। मृत्युभोज के कारण पैसो का दर्द | मृत्युभोज के लिए 50 हजार से 2 लाख रुपये तक का साधारण इन्तज़ाम करने का दर्द। अगर मृतक का परिवार या कोई सदस्य इस रिवाज को करने के लिए मना करता है तो इस रिवाज के पक्ष में कुछ रुढ़िवादी लोग वकील बनकर खड़े हो जाते है और तर्क देते है | ऐसा नहीं करोगे तो समाज में इज्जत नहीं बचेगी ? लोग क्या कहेंगे ? लोगो की नजरो में इज्ज़त नहीं बचेगी ? क्या गजब पैमाने बनाये हैं, हमने इज्जत के ? अपने धर्म को खराब करके, परिवार को बर्बाद करके इज्जत पाने का पैमाना ।
कहीं-कहीं पर तो इस अवसर पर अफीम की मनुहार भी करनी पड़ती है। इसका खर्च मृत्युभोज के भोजन के बराबर ही पड़ता है। बड़े-बड़े नेता और अफसर इस अफीम का आनन्द लेकर कानून का खुला मजाक उड़ाते अकसर देखे भी जाते हैं। कुछ स्थानों पर मृत्युभोज के अवसर पर शराब आदि का आयोजन भी किया जाता है | जब मैंने मृत्युभोज पर शराब का समर्थन करने वाले लोगो से पूछा कि क्या इस घटना में शराब पिलाना अनिवार्य है | तो उसका जवाब सुनकर मैं स्तब्ध रह गया | उसने कहा बताया कि शराब पिलाने से मरने वाले का दर्द भुलाने में आसानी होती है | मैं मन ही मन सोचने लगा कि भाई साहब ने क्या कमाल का तर्क दिया है | लोग अपनी इच्छा पूरी करने की आड़ में ऐसे ऐसे कार्यो को बढ़ावा देते है |
कई बार इस कुरीति में कॉम्पटीशन भी देखने को मिलता है | अगर किसी व्यक्ति ने अपने पिता की मृत्यु पर हलवा पूरी बनवा दी, तो पडोसी अपने पिता की मृत्यु पर रसगुल्ले बनवाता है | और बुद्धिजीवी लोग भी उसका ये कहकर समर्थन कर देते है कि सही है भाई | तू उससे कम थोडा ही है | तेरी हेसियत उससे कही ज्यादा है |
कपड़ों का लेन-देन भी ऐसे अवसरों पर जमकर होता है और वे कपड़े केवल दिखाने के होते है, पहनने लायक बिलकुल नहीं । बरबादी का ऐसा नंगा नाच, जिस समाज में चल रहा हो, वहाँ पर पूँजी कहाँ बचेगी, उत्पादन कैसे बढ़ेगा, बच्चे कैसे पढ़ेंगे ?
देश में नकली घी-शक्कर-तेल-आटे-कपड़े-अफीम का यह खेल कई लाख करोड़ रुपये प्रतिवर्ष में बैठता है। नरेगा में सरकार कितना पैसा परिवारों तक पहुँचा पायेगी। उससे तो ज्यादा खर्च मृत्युभोज पर ही हो जाता है। इस खेल को प्रायोजित करने में भू-माफिया, ब्याज-माफिया, अपना उल्लू सीधा करने वाले और मिलावट-माफिया संगठित होकर आगे आते हैं। अपने-अपने समाज के ठेकेदार बनकर ये माफिया, मृत्युभोज की कुरीति को आगे बढ़ाते हैं। इसे पक्का करने के लिए उनके स्वयं के परिजनों की मौत पर बढ़-चढ़ कर खर्च करते हैं, ताकि मध्यम और निम्र वर्ग इसे आवश्यक परम्परा मानकर चलता रहे।
अजीब लगता है जब यह देखते हैं कि जवान मौतों पर भी समाज के लोग मिठाईयाँ उड़ा रहे होते हैं। हम आदिवासियों को क्या कहेंगे, जब हमारा तथाकथित सभ्य समाज भी ऐसी घिनौनी हरकतें करता है। लोग शर्म नहीं करते, जब जवान बाप या माँ के मरने पर उनके बच्चे अनाथ होकर, सिर मुंडाये आस-पास घूम रहे होते हैं। और समाज के प्रतिष्ठित लोग उस परिवार की मदद करने के स्थान पर भोज कर रहे होते हैं। आप आश्चर्य करेंगे कि इधर शहीदों तक को नहीं बख्शा गया है। उनका स्मारक बनाने के नाम पर फोटो खिंचवाते ‘देशभक्त’ नेता और समाज के लोग, शहीद के परिवार को मिली सहायता स्वाहा करने से भी नहीं चूकते।
सोशल मीडिया के इस युग में कुछ समाज सुधारक और कुछ नेता तो ऐसे है जो इस अवसर पर जाते है और शोकाकुल परिवार से दो शब्द बात करने के बाद कहते है कि आइये भाई साहब एक फोटो खिंचवा लेते है, और फोटो खींचते ही वहां से चलते बनते है | मतलब हद है शोक व्यक्त करने की भी |
शासन और बुद्धिजीवियों का मौन
शासन और बुद्धिजीवियों के लिए यह समस्या अभी अपनी गम्भीरता प्रकट नहीं कर पायी है। वे तो बाल विवाह के पीछे पड़े हैं, बालिका शिक्षा उनकी फैशनेबल मुहिम है। उन्हें नहीं पता कि एक मृत्युभोज, किसी भी परिवार की आर्थिक स्थिति को अंदर तक हिला देता है। गाँवों और क़स्बों की इस कड़वी सच्चाई का या तो उन्हें बोध नहीं है और या फिर वे कुछ नहीं कर पाने के कारण मौन धारण कर बैठ गये हैं। मृत्युभोज की वीभत्सता अभी ठीक से प्रदेश के मंच पर आ ही नहीं पायी है। इसके आर्थिक दुष्परिणामों के बारे में अभी ठीक से सोचा नहीं गया है। अब देखिये, वह परिवार क्या बालिका शिक्षा की सोचेगा, जो ऐसी कुरीतियों के कारण कर्जे में डूब गया है। ऐसा परिवार बाल विवाह भी मजबूरी में करता है, ताकि कैसे भी करके एक सामाजिक जिम्मेदारी पूरी हो जाये। मृत्युभोज को रोकने के लिए राजस्थान में मृत्युभोज निवारण अधिनियम 1960 भी बना है, जिसके तहत सजा व जुर्माने का स्पष्ट प्रावधान है। परिवार एवं पंडित-पुरोहितों को मिलाकर 100 व्यक्तियों तक का भोजन ही कानूनन बन सकता है। इससे बड़े आयोजन पर उस क्षेत्र के सरपंच, ग्राम सेवक, पटवारी व नगर पालिका के अधिशासी अधिकारी की कुर्सी छिन सकती है। लेकिन कुछ जगह शासन अभी भी इस पर मौन है। वोटों के लालच में। यहाँ तक कि ऐसे मृत्युभोजों में नेता-अफसर स्वयं भाग भी लेते रहते हैं। फिर किसकी मजाल, जो शिकायत करे। बुद्धिजीवी भी घर से बाहर नहीं निकलते। ऐसा लगा, जैसे वे भी प्रशासन के साथ मृत्युभोज के पक्ष में ही है |
कुछ जगह आज भी अख़बारों में खुले आम ‘गंगा प्रसादी’ की घोषणा की जाती है। यह ‘गंगाप्रसादी’ और कुछ नहीं मृत्युभोज है। कानूनी अड़चनों से बचने के लिए कुछ न्यायविदों ने यह शब्द सुझा कर समाज की सेवा की है! वे कहते हैं कि हम गंगा मैया का प्रसाद बाँट रहे हैं। यह अलग बात है कि इस प्रसाद को मिठाईयों में डालकर बाँट रहे हैं।
कुतर्कों का जाल
अब आइये कुछ कुतर्कों से जूझें। क्योंकि जब भी मृत्युभोज रोकने का प्रयास होगा, तो ये सामने लाये जायेंगे। कमाल तो यह है कि ये कुतर्क क़स्बों-गाँवों में समान रूप से सुधारकों के सामने फेंके जाते हैं। ये कुतर्क शास्त्री महिलाओं और बुज़ुर्गों का अपना खास निशाना बनाते हैं। कभी शराब बन्दी की बात को बीच में लाकर इस मुद्दे से ध्यान हटाने की भी कोशिश करते हैं। पहले शराब बंद करो, फिर मृत्युभोज बंद करेंगे, का अड़ंगा देश के प्रत्येक भाग में समान रूप से लगाया जाता है। कल को कह देंगे कि मोबाइल बंद करो, फिर मृत्युभोज बंद करेंगे ! अब शराब और मोबाइल का मृत्युभोज से क्या कनेक्शन है, क्या लेना-देना है? फिर भी स्वार्थी लोगों की क्षमता तो देखिये कि वे अपनी बात को कितनी सावधानी से फैलाने में कामयाब हो जाते हैं। और सही बात कहने वाले चिल्लाते रहते हैं, परन्तु उनकी बात का प्रचार गति आसानी से नहीं पकड़ता। मृत्युभोज के पक्ष में कुतर्क कुछ इस प्रकार है ----
1. माँ-बाप जीवन भर हमारे लिए कमाकर गये हैं,तो उनके लिए हम कुछ नहीं करें क्या?
इस पहले कुतर्क से हमें भावुक करने की कोशिश होती है। हकीकत तो यह है कि आजकल अधिकांश माँ-बाप कर्ज ही छोड़ कर जा रहे हैं। उनकी जीवन भर की कमाई भी तो कुरीतियों और दिखावे की भेंट चढ़ गयी। फिर अगर कुछ पैसा उन्होंने हमारे लिए रखा भी है, तो यह उनका फर्ज था। हम यही कर सकते हैं कि जीते जी उनकी सेवा कर लें। लेकिन जीते जी तो हम उनसे ठीक से बात नहीं करते। वे खोंसते रहते हैं, हम उठकर दवाई नहीं दे पाते हैं। अचरज होता है कि वही लोग बड़ा मृत्युभोज या दिखावा करते हैं, जिनके माँ-बाप जीवन भर तिरस्कृत रहे। खैर! चलिए, अगर माँ-बाप ने हमारे लिए कमाया है, तो उनकी याद में हम कई जनहित के कार्य कर सकते हैं, पुण्य कर सकते हैं। जरूरतमंदो की मदद कर दें, अस्पताल-स्कूल के कमरे बना दें, पेड़ लगा दें। बहुत कार्य हैं करने के। परन्तु हट्टे-कट्टे लोगों को भोजन करवाने से उनकी आत्मा को क्या आराम मिलेगा? जीवन भर जो ठीक से खाना नहीं खा पाये, उनके घर में इस तरह की दावत उड़ेगी, तो उनकी आत्मा पर क्या बीतेगी? या फिर अपने क्रियाकर्म के लिए अपनी औलादों को कर्ज लेते, खेत बेचते देखेंगे, तो कैसी शान्ति अनुभव करेंगे? जो जमीन जीवन में बचाई, उनके मरने पर बिक गयी, तो क्या आत्मा ठण्डी हो जायेगी?
2. क्या घर आये मेहमानों को भूखा ही भेज दें?
पहली बात तो ये कि शोक प्रकट करने आने वाले रिश्तेदार और मित्र, मेहमान नहीं होते हैं। उनको भी सोचना चाहिये कि शोक संतृप्त परिवार को और दुखी क्यों करें? अब तो साधन भी बहुत हैं। सुबह से शाम तक वापिस अपने घर पहुँचा जा सकता है। इस घिसे-पिटे तर्क को किनारे रख दें। मेहमाननवाजी आडे दिन भी की जा सकती है, मौत पर मनुहार की जरूरत नहीं है। बेहतर यही होगा कि हम जब शोक प्रकट करने जायें, तो खुद ही भोजन या अन्य मनुहार को नकार दें। समस्या ही खत्म हो जायेगी। मेहमान नवाजी करनी या करानी है तो अन्य बहुत अवसर है |
3. हम किसी के यहाँ भोजन कर आये हैं, तो उन्हें भी बुलाना होगा!
इस मुर्ग़ी पहले आई या अंडा वाली पहेली को यहीं छोड़ दें। यह कभी नहीं सुलझेगी। अब आप बुला लो, फिर वे बुलायेंगे। फिर कुछ और लोग जोड़ दो। इनसानियत पहले से ही इस कृत्य पर शर्मिंदा है, और न करो। किसी व्यक्ति के मरने पर उसके घर पर जाकर भोजन करना वाकई में निंदनीय है और अब इतनी पढ़ाई-लिखाई के बाद तो यह चीज प्रत्येक समझदार व्यक्ति को मान लेनी चाहिए। गाँव और क़स्बों में गिद्धों की तरह मृत व्यक्तियों के घरों पर मिठाईयों पर टूट पड़ते लोगों की तस्वीरें अब दिखाई नहीं देनी चाहिए।
चलो साथ मिलकर ऐसी कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाये
हमारा नेटवर्क समाज में मृत्युभोज की कुरीति को जड़ से समाप्त करने के लिए प्रदेश भर में सोशल मीडिया और अन्य माध्यमो से व्यापक जनजागरण कार्यक्रम कर रहा है | सभी तरह के प्रचार माध्यमों का उपयोग कर मृत्युभोज जैसी अमानवीय परम्परा के खिलाफ माहौल बनाया जायेगा। विशेष रूप से युवा वर्ग को मृत्युभोज के आयोजनों से दूर रहने के लिए प्रेरित किया जायेगा। इस कार्य में प्रदेश के बुद्धिजीवी वर्ग की अहम भूमिका होगी।
हमारी टीम इस मुद्दे पर अन्य सामाजिक संगठनों और ग्राम सभाओं में इसके लिए निर्णय करवाएगी । ताकि नये समाज का, और नये भारत की नींव रखी जा सके। तब शायद शासन भी साथ दे दे और मुहिम और तेज गति पकड़ ले। अतः सभी पाठको से निवेदन है कि इस विषय पर मुझे अपने सुझाव ईमेल आई डी gabbarsinghnetwork@gmail.com पर या इस मेसेज के नीचे कमेंट करके सुझाव जरुर दे | और अपने आस पास के प्रतिष्ठित सामाजिक व्यक्ति या बुजुर्गो को इस लेख को पढ़कर बताये और उनके विचार और सुझाव जरुर दे | ये कुरीति किसी परिवार विशेष की नहीं बल्कि सर्व समाज की है इसलिए आप सभी के विचार और सुझाव इसमें बहुत मायने रखते है | सभी महानुभाव अपने सुझाव दे नाम और पते के साथ दे | हम सोशल मीडिया के जरिये आपके सुझाव इस सन्देश की तरह लोगो को दिखायेगे और हर व्यक्ति के सुझाव के साथ उसका परिचय होगा |
धन्यवाद |
निचे की ये लाइन जरुर पढ़े |
अगर आप भी इस कुरीति को रोकना चाहते है तो इस लेख को ज्यादा से ज्यादा शेयर करे | ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इस कुरीति के प्रति सचेत हो सके |
मैंने सोशल मीडिया या किसी कार्यक्रम के माध्यम से लोगों द्वारा इस कुरीति के विरुद्ध बात करते या मेसेज करते बहुत बार देखा है | कई लोग इस बारे में लिखते है, मेसेज शेयर करते रहते है | मैंने भी व्हाट्सएप पर इस कुरीति के बारे में बहुत मेसेज पढ़े है | लेकिन सुखद परिणाम क्यों नहीं मिलता ?
क्यूंकि जब भी कोई भाई किसी कुरीति के बारे में मेसेज करता है तो लोग अक्सर उसे अच्छी बताकर अपना पल्ला झाड लेते है | कोई कहता है कि मै आपकी बात का समर्थन करता हूँ, कोई हाँ में हाँ मिला देता है, कोई कहता है कि आपने बहुत अच्छी बात कही | बस इस प्रकार के डायलॉग कहकर लोग अपनी जिम्मेदारी निभा देते है | और बात उसी ग्रुप तक सीमित रह जाती है |
इस कुरीति को दूर करने के लिए सबसे पहले हमें एक ऐसी जगह या प्लेटफार्म चाहिए जहाँ पर सब लोग इसके बारे में पढ़ सके और अपनी राय दे सके | जहाँ पर अगर कोई व्यक्ति इस कुरीति को दूर करने कोई तरीका बताये तो उसका वो तरीका या सुझाव सबको पता चल सके | जब एक एक करके सब लोग अपने तरीके या समाधान बताएँगे तो उन सब समाधानों को पूरा भारत देख सकेगा |
लेकिन अगर आप व्हाट्सएप, या फेसबुक, या किसी गाँव की मीटिंग के माध्यम से इसे बंद करने के तरीके बतायेगे | तो आपकी आवाज बस एक ग्रुप या गाँव के कुछ लोगो तक सिमट कर रह जायेगी | और धीरे धीरे आपका जोश भी |
इसलिए अगर आप सच में इस कुरीति को बंद करने के समर्थक है तो इस लेख के निचे कमेंट बॉक्स दिया गया है | उस कमेंट बोक्स में अपना सुझाव या विचार लिखकर पूरी दुनिया को बताएं | इस प्रकार जिन लोगो को भी ये मेसेज मिलता जाएगा वे सब आपके सुझाव पढ़ते रहेंगे और अपने विचार भी लिखते रहेंगे | इस तरह से ये एक मुहीम बन जायेगी | हर आदमी पहले लेख पढ़ेगा और फिर इस लेख के निचे लोगो के सुझाव | और एक दिन लोगो के मेहनत रंग जरुर लाएगी |
वर्ना आप व्हाट्सएप, फेसबुक, अख़बार, मीटिंग आदि के माध्यम से मेसेज शेयर करते रहेंगे और लोग उन्हें पढ़कर और अच्छी बात बताकर पल्ला झाड़ते रहेंगे | समस्या जस की तस बनी रहेगी | फैसला आपके हाथ में है सोचियेगा जरुर |
एक बार आप अपना सुझाव लिख कर शुरुआत करे धीरे धीरे बाकी ........
इसे शेयर करने के बटन लेख के ऊपर और नीचे दिए गये है |
#GabbarSinghNetwork
सबसे अच्छा तरीका यह है कि हमें रश्म पगड़ी में जाकर स्वयं मेत्युभोज खाना बंद कर देना चाहिए ।
ReplyDeleteराजन सिंह
यूपी
☑️☑️
Deleteभाई आप लोग भी अपना सुझाव देकर इसे एक क्रांति बनाए
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