एक निराशा में डूबा हुआ, अन्धकार में डूबा हुआ लेख, देश के ताजा हालात पर, और अन्धकार के उस पार, आशा की किरण.
अच्छे से जानता-समझता हूँ कि आज भी देश के अधिकतर परिवार बहुत ही गरीब हैं. इतने कि घर में किसी भी छोटी मोटी बीमारी या किसी सामाजिक कार्यक्रम से हिल जाते हैं, अंदर तक. घबरा जाते हैं. यह जो सोशल मीडिया पर चहकते लोग हैं, इनसे इतर देश का बहुत बड़ा हिस्सा अभाव का जीवन जी रहा है.
ये जो लाखों युवा हैं, बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं. परिवार इनसे परेशान, ये परिवार से परेशान. मोदीजी कहते हैं कि ये भारत का सौभाग्य है कि यहाँ इतने युवा हैं ! इन युवाओं से पूछो कि इनको भाग्य में क्या दिखाई दे रहा है. मोबाइल, क्रिकेट और गुटके से दिल बहलाती यह तरुणाई हमें यानि समाज को धिक्कार रही है. जब संभाल नहीं सकते थे तो पैदा क्यों किया ?
जिसे लोग किसान कहते हैं, वह अपने काम से नफरत करने लगा है. सुनार-लुहार-सुथार और दरजी भी अपने कामों से उकता गए हैं. उत्पादन के ये दो छोर बिखर गए हैं. बाजार में बैठा व्यापरी भी देश छोड़कर भागने की फिराक में बैठा है. उसे गुजरात, महाराष्ट्र और तमिलनाडु रिझा रहे हैं. कब तक वह दुकान पर खाली बैठा अखबार और अवतार से मन बहलाए ?
जब सड़क पर चलता हूँ तो मुझे यह खोखली लगती है. इसका बहुत सा माल अंदर तक खा लिया गया है. थोड़ी सी ठीक सड़क पर जैसे ही गाड़ी चढ़ाता हूँ तो टोल वाला दिखाई दे जाता है. मेरा दिया रोड टेक्स कहाँ गया ?
पीने के मीठे पानी को घर के नल में आता देखूंगा, यह कभी सोचता था. ख्वाब था शायद. सरकार कहती है कि पानी पिलाने के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है. देहात के तो हाल और भी बुरे हैं. अठारवीं सदी के बने हुए हैं.
दो रूपये में बिजली खरीदकर छः रूपये में बेचने के बाद भी धंधा घाटे में चल रहा है ! सब समझ आता है कि मुनीम कितना रास्ते में हजम करता है. उसका पेट ही नहीं भर रहा है. तार-मीटर-फीडर-ट्रांसफर्मर, सभी खाने के बाद भी.
पुलिस थाने में कोई जाये और वहाँ बिना पैसे कुछ काम हो जाए, तो समझिए कि आप भारत में नहीं हैं ! तहसीलदार या पटवारी आपकी जमीन का बंटवारा बिना पैसे कर दें तो ‘चमत्कार’ को नमस्कार कर लीजियेगा. अस्पताल में आपको डॉक्टर सेवा में रत मिल जाएँ तो समझिए कि आप सपना देख रहे हैं. कॉलेज में बच्चे क्लासों में हों तो आँखों पर पानी डाल दीजिए |
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असल में यही है आज का देश. खरे खरे शब्दों में. हजारो करोड़ रूपये का टेक्स देने के बाद. टेक्स से हमको क्या मिलता है? हमें तो कुछ नहीं मिलता पर राजनेता और अफसर-कर्मचारी को तनख्वाह और सुविधा जरूर मिलती है. इसी को हम शासन कहते हैं. बिना जिम्मेदारी, बिना सेवा का शासन. एक चुना हुआ राजतंत्र, एक शोषण की व्यवस्था. एक परायी सी लगती व्यवस्था. डराती सी व्यवस्था |
लेकिन कवियों की तरह इस स्थिति की निंदा करके तालियाँ बजवाना हमारा उद्धेश्य नहीं है. हम अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे. देश में हम इस सड़ी हुई व्यवस्था की जगह एक नई व्यवस्था स्थापित कर देंगे. ऐसी व्यवस्था जो समाज और शासन को ऐसे जोड़ दे कि रोज के रोज समाज को मालूम हो कि शासन में क्या हो रहा है. कि शासन के किये गए काम का असर रोज के रोज हर दहलीज तक हो.
देश अब इस दयनीय हालत से बाहर आने को बेताब है. हम इस बेताबी को जबान देंगे, हम इस बेताबी को बदलाव में बदल देंगे. सक्षम भारत रच देंगे. अभी भले लोग इस हल्के में, भले इसे मजाक समझें. छद्म अवतारों के पुजारी कितना ही चीखें. पर हमें पता है कि यह होकर रहेगा क्योंकि हम कठिन परिश्रम कर रहे हैं. रात और दिन. एक नई व्यवस्था के लिए, जो चुनाव-चुनाव के खेल से बहुत कुछ ज्यादा काम है. चुनाव तो एक बहुत ही छोटा पड़ाव है पर पड़ाव रास्ते में होगा तो पार करना होगा.
वंदे मातरम करना होगा ! पूरे आत्मविश्वास से. कब तक देश को इस हाल में देखेंगे ? कब तक लुटेरों के लिए मैदान खुला छोड़ेंगे ? बहुत हो गया.
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