आजादी के बाद स्कूल खुले, कॉलेज-यूनिवर्सिटी खुले। शिक्षा के लिए दो परीक्षाएँ मेट्रिक (10) और
ग्रेजुएशन पास करने का महत्त्व हो गया। दो तीन दशक तक तो सब ठीक चला लेकिन उसके
बाद शिक्षा और परीक्षा के इस सम्बन्ध से ज्ञान गायब होने लगा। शिक्षा की परिभाषा
बदलने लगी और परीक्षा पास करना या डिग्री ले लेना इसके अर्थ हो गये। फिर एक
अविश्वास का दौर आया तो परीक्षा व डिग्री का ही महत्व खत्म हो गया। अब आपको किसी
जॉब या कोर्स में प्रवेश लेना है, तो अलग से परीक्षा दो। डिग्री तो मात्र एक प्रारंभिक क्वालिफिकेशन, योग्यता मात्र रह गयी। इससे आगे
इसका महत्व एक कागज भर का है। अब घर में डिग्री टाँगने या दरवाज़े पर नाम के आगे
बी.ए. या एम.ए. लिखने से आपको गर्व नहीं होता है। आने जाने वाले भी ऐसी नेम प्लेट
की तरफ नहीं झांकते। आपको ‘नौकरी’ मिलना ही शिक्षा की नई योग्यता हो गयी।
1. भटकते समाधान
जब यह बीमारी बढ़ी, ते आत्ममंथन की बातें हुई। कई आयोग बने, जिन्होंने मामले को और उलझा
दिया। शिक्षा और ज्ञान के बीच नई दीवारें और भी ऊँची कर दीं। शिक्षा और ज्ञान दो
अलग-अलग लक्ष्य हो गये। बीच में ‘नौकरी’ की दीवार। अजीब हालत हो गयी। और इस हालत ने बेरोज़गारी के नये आयाम
खड़े कर दिये। शिक्षित बेरोजगार शब्द आ गया। अब ज्ञानी बेरोजगार तो कोई हो नहीं सकता। ज्ञान को
उपलब्ध व्यक्ति कैसे बेरोजगार होगा? लेकिन हमारे बुझक्कड़ शिक्षा शास्त्री कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने
एक रेडीमेड व्याख्या ढूंढ ली और इसे दिल्ली से क़स्बे-गाँव तक पहुँचा दिया। क्या
व्याख्या? उन्होंने कहा कि इस स्थिति के लिए ‘मैकाले’ जिम्मेदार है। उसकी साज़िश है। साज़िशों की बातें जिम्मेदारी से बचने
का अच्छा हथियार है। हम हमेशा साज़िशों की कहानियां कहते रहते हैं। ‘अमेरिका की साज़िश’, ‘चीन-पाकिस्तान की साज़िश’, ‘बहूद्देशीय कम्पनियों की साज़िश’ या फिर अपने ‘आर एस एस’ की साज़िश। तर्क शास्त्री वर्ग
का काफी काम इससे निकल जाता है। तो मैकाले साहब का भूत अभी भी चढ़ा है दिमाग पर।
मैं इस चक्कर में मैकाले जी की पूरी जीवनी पढ़ गया। ऐसा क्या आदमी था कि भारत के
लिए शिक्षा पद्धति लिख गया, भारत के कानून लिख गया। वे भी ऐसे लिख गया कि 6 दशकों की आजादी के
बाद भी हम उसमें संशोधन नहीं कर पा रहे हैं? कोमा हटाने में भी परेशानी होती है। यहाँ ध्यान दें, मैकाले ने मात्र चार वर्ष में
अपने भारत प्रवास में हमारा वर्तमान कानून, सी आर पी सी, आई पी सी भी लिखा था। मात्र 4 वर्ष में। साफ है कि हम अभी तक एक भी
मैकाले पैदा नहीं कर पाये। कोई भी भारत का शिक्षा मंत्री या शिक्षा सचिव नहीं बना, जिसने शिक्षा के विषय पर अपनी
रातें खराब की हों। हाँ, कृषि जगत में जरूर ऐसा हुआ कि लाल बहादुर शास्त्री जी के निर्देशन
में तब के कृषि मंत्री सी. सुब्रह्मण्यम और उनके साथ एम.एस. स्वामीनाथन् जैसे
वैज्ञानिकों ने हिम्मत करके हरित क्रांति कर दी। वरन् हम तो कटोरा लेकर अमेरिका के
दरवाज़े पर खड़े रहते थे। लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में कुछ खास नहीं पाया। स्तर
गिरता ही गया है। और जनाब, जिन आई.टी., आई.आई.टी. या एम.बी.ए. की उपलब्धियों पर हम गर्व करते हैं और विश्व
में इसे अपनी बढ़ती ताकत का माप बताते हैं, उनके बारे में भी जान लीजिए। ये योग्यताएं तो केवल अमेरीका-यूरोप की
बड़ी कम्पनियों के लिए मुनीमों व टाइपिस्टों की हैं। इनसे नोबेल पुरस्कार नहीं मिला
करते हैं। नोबेल तो भौतिक शास्त्र या रसायन शास्त्र में ही मिलते हैं और उसके लिए ‘ज्ञान’ चाहिये, ‘जानकारियाँ’ नहीं।
2. ज्ञान से साक्षरता तक
हाँ, यही ‘जानकारियाँ’ अब शिक्षा की परिभाषा हो गयी हैं। शिक्षित को अब हमने ‘साक्षर’ भी कह दिया है। जिसे अक्षरों का
ज्ञान है। और अब देश को शिक्षित करने की बजाय साक्षर करने की मुहिम हमने छोड़ दी
है। ज्ञान से शिक्षा और शिक्षा से साक्षरता। साक्षरता यानि जो अपना नाम लिख ले, पढ़ ले। हमारा गिरता स्तर। लेकिन
हमें इतने साक्षर लोग क्यों चाहिये? लिखा-बोला जवाब यह है कि पढ़ाई-लिखाई से देश का विकास होगा, विकास की योजनाओं को देश की जनता
समझेंगी, लोकतंत्र मजबूत होगा। लेकिन कौन है जो वाकई में देश के विकास के लिए
परेशान हो रहे हैं? । विकास योजनाओं में भागीदारी कौन बढ़ाना चाहता है? सरपंच, प्रधान, जिला प्रमुख या मंत्री? भागीदारी बढ़ गयी, तो वे क्या करेंगे? किस लिए राजनीति में होंगे? और साहब लोकतंत्र कौन मजबूत
चाहता है? भाजपा या कांग्रेस? दोनों ने ही पार्टी के अंदर लोकतंत्र नहीं छोड़ा है, तो बाहर कैसे लोकतंत्र को पनपने
देंगे। अब तो दोनों पार्टियों में सर्वसम्मति के नाम पर सरकार की तरह नियुक्तियाँ
होती हैं। ‘टिकट’ ऊपर से आते हैं। और क्या साक्षर ठीक से वोट दे पायेगा? आपने देखा है ऐसा? अच्छे से अच्छा पढ़ा लिखा आदमी
अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देता है। बल्कि इन पढ़े लिखे लोगों ने ही जातिगत
वोट की बीमारी को बढ़ाया है, समाज को बाँटा है, भाईचारा कम किया है।
3. आखिर साक्षरता किस लिए ?
तो फिर साक्षरता क्यों? और क्यों साक्षरता के लिए विश्व बैंक पैसा दे रही है। शायद विश्व
स्तर पर उपभोक्ता खड़े करने हैं। नये उपभोक्ता, जो साबुन से नहाते हों, पेस्ट करते हों, मोबाइल रखते हों, टी.वी. देखते हों। इसी अभियान को पहले भारत में ‘साक्षरता मिशन’ कहा गया था | अब ‘सर्व शिक्षा’ के माध्यम से पेश किया गया है।
सबको पढ़ाओ। मैं कई बार सीधा प्रश्न कर लिया करता हूँ कि पढ़ने से क्या होगा? जवाब आता है नौकरी लग जायेगी। मैं पूछता हूँ कितने लोगों को
नौकरी मिल जायेगी। जवाब में बगलें झाँकते महाशय। मैं कहता हूँ कि मात्र 1 प्रतिशत
पढ़े-लिखों को नौकरी सरकार दे पायेगी, 10-12 प्रतिशत निजी क्षेत्र में जा पायेंगे। स्वयं का व्यवसाय 10
प्रतिशत कर पायेंगे। 75 प्रतिशत का हाल खराब होना है, और देखो हो भी रहा है। घर का काम वे अब कर नहीं सकते।
ज्ञान है नहीं, केवल परीक्षा पास का सर्टिफ़िकेट या डिग्री है। कुछ नेता शिक्षा के
नाम पर लोगों को समझा रहे थे। बच्चों को
पढ़ाओ, तो इनको अरब के देशों में ड्राइवर या मिस्त्री की नौकरी मिल जायेगी।
इससे देश के नेतृत्व की दिशा पता चलती है। मनमोहन सिंह या नरेन्द्र मोदी भी सबको पढ़ाओ,
बेटी पढाओ, बेटी बचाओ के नारे लगा रहे हैं। लेकिन पढ़ा कर क्या करें,
यही कि पढ़ लिख कर पकोड़ा बेचे | पढ़
लिखकर पकोड़ा बेचना रोजगार है या मज़बूरी ? ये सब रटे-रटाए जुमले हैं। हवा में रोजगार का जादू दिखा देते हैं। लेकिन रोजगार बढ़ाने के लिए
खेती और उद्योग का उत्पादन बढ़ाने की बात कोई नहीं करता। ये विषय गंभीर हैं और
गंभीर कौन होना चाहता है? शिक्षा के विस्तार की बातें पोस्टरों में कह दो, किताबों पर फोटो छाप लो। और बस
उनकी जिम्मेदारी पूरी | आसान है।
4. सर्वशिक्षा या कुछ और?
सर्व शिक्षा के इस महाभियान में
हमने नई पीढ़ी को पंगु करने के लिए इतने इंतज़ाम कर दिये हैं कि कई दशकों तक सघन परिश्रम करेंगे, तो पटरी फिर बैठेगी। किसने सोचा
था कि आजादी हमें इतनी महंगी पड़ेगी? किसने सोचा था कि इतनी गैर ज़िम्मेदारी से हम व्यवस्था को चलायेंगे? उस समय तो शायद कल्पना भी नहीं कर सकते थे। हमने कितना कोसा था
चर्चिल को, जब उन्होंने एटली को चेताया था कि ये लोग अभी देश चलाने के काबिल
नहीं है। माउन्टबेटन और नेहरू के कहने में मत आओ। लेकिन प्रधानमंत्री एटली, सुभाष चन्द्र बोस और उनकी फौज से
इतने डरे हुए थे कि हिंदुस्तान की आज़ादी की घोषणा कर बैठे। तब से आज तक हमने कई क्षेत्रों के स्तर को गिराया
है, परन्तु शिक्षा के साथ कितना कुठाराघात किया | वह इन करतूतों से स्पष्ट हो
जायेगा। सर्व शिक्षा अभियान में शत प्रतिशत नामांकन और बच्चों के स्कूल में
ठहराव को सुनिश्चित करने के लिए तीन इंतजाम किये गये हैं। शाला भवनों का निर्माण, शिक्षकों की भर्ती और मिड डे
मिल। शिक्षकों की भर्ती का निर्णय तो बेरोज़गारी का अहसास कम करने के काम आ गया और गाँव-गाँव में शिक्षक पहुँच भी
गये। परन्तु भवन निर्माण का काम इतने अनियमित तरीके से किया गया कि हजारों करोड़
रुपये पानी में बह गये। भवन निर्माण का काम विशेषज्ञ विभाग से छीन कर सरपंचों और
अध्यापकों को सौंप दिया गया। ऐसे में जो होना था हुआ, और खेत-खेत में भवन खड़ा हो गया।
कस्बों के प्रत्येक मोहल्ले में जहां जगह मिली, भवन खड़ा हो गया। समस्या भ्रष्टाचार तक सीमित होती, तो गनीमत होती। नई समस्याएँ पैदा
हो गयी। भवन बन गया है, तो स्कूल खोलो। अध्यापक लगाओ। बच्चों की संख्या गौण हो गयी। एक बच्चे
का भी स्कूल खुल गया। कहीं चार बच्चे तो कहीं पाँच शिक्षक। कहीं 100 बच्चे, तो भी एक शिक्षक। माया जाल ऐसा उलझा कि चार-पाँच
वर्षों बाद समझ में आया कि गंभीर भूल हो गयी है। लेकिन अब क्या करें? स्कूल बंद करो तो नेता नाराज़, शिक्षकों को इधर-उधर करो, तो उनसे दुश्मनी कौन सी सरकार ले? राजनैतिक इच्छा शक्ति भी नहीं, तो शिक्षक वर्ग के साथ विश्वास और समन्वय का सम्बन्ध भी नहीं। और
देखिये। इस गड़बड़झाले में जब इन स्कूलों में पढ़ाई का स्तर गिरने लगा, तो अभिभावकों ने निजी स्कूलें
पकड़ लीं। बच्चों के भविष्य के साथ वे खिलवाड़ क्यों होने देंगे?
5. खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे !
ऐसे में मिड डे मील का सहारा लिया गया। नीति बनाने वाले भी ये तो जानते ही हैं कि अभी भी
भारत में जीमने का शौक चरम सीमा पर है। बुलाने भर की देर है। किसी व्यक्ति के मरने पर भी
यहाँ भोज का आयोजन हो जाया करता है। सैकड़ों-हजारों लोग पहुँच जाया करते हैं। यह
ट्रिक भी अपना ली गई। पाठशाला को पाकशाला बना दिया गया। कारण दिया गया कि इस भोजन से कुपोषण मिटेगा। लेकिन जब
लगा कि कुपोषण मिटने का माप क्या होगा, तो फटाफट भाषा बदल दी गयी। कहा गया, इससे बच्चों का स्कूल के प्रति आकर्षण बढ़ेगा, ठहराव अधिक होगा। बच्चे स्कूल आते
रहेंगे। वाह! विश्व की ताकत हम इन्हीं बच्चों के भरोसे बनेंगे, जो मात्र खाने के लालच में स्कूल
जाते हैं। क्या इनके घर खाना बनता ही नहीं है? इनके माँ-बाप क्या खाते होंगे? कैसी वाहियात व्यवस्था बन गई है यहाँ? लेकिन इससे भी देखिये, मामला सुलझा नहीं। अब भी बच्चे स्कूल कम आ रहे हैं। तो एक नया पासा फैंका गया, जिसने शिक्षा के ताबूत में आखिरी
कील ठोंक दी।
6. ताबूत में आखिरी कील !
सबको पास कर दो। शिक्षकों को कह दिया गया कि कोई विद्यार्थी पहले 5 वीं तक और अब 8
वीं तक फैल नहीं होगा। शायद आने वाले समय में इसे 10 वीं, फिर 12 वीं और फिर ग्रेजुएशन, स्नातक स्तर तक भी कर देंगे।
सबको पास कर दो और यह भी ध्यान रखो कि किसी बच्चे को डाँटना नहीं है। डांटा-मारा तो पुलिस शिक्षक को
पकड़ कर ले जायेगी।
हो गया न पूरा भारत साक्षर? आप और क्या चाहते हैं? पूरे भारत को अपना नाम लिखना, पढ़ना सिखा दिया न। इस सबके बावजूद भी बच्चे स्कूल न आये, तो शिक्षक की ज़िम्मेदारी कि वह घर-घर जाये और बच्चों को
अपने कंधों पर उठा कर स्कूल तक लाये। सर्व शिक्षा का सपना पूरा जो करना है। अभी हम
जोड़-तोड़ करके 60 प्रतिशत साक्षरता की दर तक तो पहुँच गये हैं। 60 प्रतिशत लोग
भारत में नाम लिख लेते हैं, पढ़ लेते हैं। यही हमारा शिक्षा का पैमाना है। हे माँ भारती! नीति
निर्माता अब भी ठस से मस नहीं हो रहे हैं। वे कब कह रहे हैं कि प्रत्येक शिक्षित
व्यक्ति का ज्ञानवान होना जरूरी है। उनके माने तो ज्ञानवान होना जरूरी है, केवल उन बच्चों का जिन्होंने
अमीरों के घर जन्म लिया है, अफ़सरों के घर जन्म लिया है या नेताओं के घरों को सुशोभित किया है।
और वे तो अच्छे संस्थानों में जानकारियाँ और ज्ञान प्राप्त कर ही रहे हैं। उन्हीं
का तो यह इंडिया है, जो विश्व में तेजी से अपना स्थान बना रहा है। अब आप शिक्षा के समान
स्तर की संवैधानिक बात को याद दिलाकर उनका मूड खराब मत करो।
जय हिन्द !
जानकारी
अच्छी लगे तो आगे शेयर जरुर करे | और जनजाग्रति के कार्यक्रम में भागीदार बने |
#GabbarSinghNetwork
Post A Comment:
0 comments: