शिक्षा व्यवस्था
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ है - समाज के लिए वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप ज्ञान का
सृजन।
हमने एक ऐसा जाल बुन भी लिया है | जिसका ओर-छोर हमें नजर नहीं आ रहा है। भ्रम की चरम सीमा आ गई है।
चक्की में डाल कुछ रहे हैं और बाहर निकल कुछ रहा है। फ़ैक्टरी वह उत्पाद नहीं बना
रही है | जिसके लिए हमने इसे स्थापित किया
है। और हम कह रहे हैं कि माल बिक नहीं रहा है, लाभ नहीं हो रहा है, हानि हो रही है। हानि तो होगी
ही। लेकिन फ़ैक्टरी के सम्बन्ध में तो सेठ-उद्योगपतियों निर्णय भी ले सकते हैं।
यहाँ शिक्षा के उद्योग के बारे
में, स्कूल-कॉलेज की फ़ैक्टरी के बारे
में कौन निर्णय ले? नेता? अधिकारी? शिक्षक? अभिभावक या छात्र?
मगर सब हैं कि जिम्मेदारी ‘सिस्टम’ पर डाल कर बच रहे हैं। डालेंगे
भी। तो कौन आगे आये और जिम्मेदारी ले? हमारे माने तो बुद्धिजीवी का दायित्व है और जिम्मेदारी ठहराते वक्त
उसको हमेशा छोड़ दिया जाता है। वह फिसल कर बच भी जाता है और उल्टे आलोचना के
अस्त्र भी चला देता है। गुनाहगार, मुंसिफ बन जाता है।
क्या करें ?
जाता शिक्षा व्यवस्था को सुधरने
के लिए हमें क्या करना चाहिए | उसके कुछ सुझाव निचे वर्णित किये गये है | हम सभी
को इन सुझावों को अमल में लाना होगा |
1.
पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियाँ
हमारे पाठ्यक्रम में वर्तमान आवश्यकताओं का आकलन प्रमुख आधार होगा | विद्यार्थी की प्रतिभा को अधिकतम निखारना प्रमुख लक्ष्य होगा। शिक्षा
के अलग-अलग स्तरों पर स्थापित केंद्रों में पाठ्यक्रम बिल्कुल अलग होगा | परन्तु प्रत्येक स्तर, दूसरे स्तर का पूरक होगा। पाठ्यक्रम में स्थानीय आवश्यकताओं के
साथ-साथ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जायेगा। परन्तु पहली
प्राथमिकता स्थानीय आवश्यकता होगी। हम अमेरिका और यूरोप की कम्पनियों के लिए
विद्यार्थी तैयार नहीं करेंगे। भारत की कम्पनियाँ, निजी क्षेत्र या सरकारी क्षेत्र की हमारी प्राथमिकता में रहेंगी।
हमें यह भी ध्यान रखना है कि हमारा उत्पादन बढ़ाना विकास की परम आवश्यकता है और
इसके लिए कृषि एवं उद्योग के लिए आवश्यक ज्ञान की वर्तमान उपेक्षा पर हम विराम लगा
देंगे। अधिक दिन तक हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़ कर नहीं बच पायेंगे।
इसी प्रकार हमें अपनी शिक्षण विधियों में भी परिवर्तन करने होंगे | ताकि ज्ञान को लेने में और देने में, विद्यार्थी और शिक्षक की रूचि बन सके। पुरानी पड़ गयी विधियों को
बदलकर नई विधियाँ विकसित करनी होगी। प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन के तरीके अलग होने
चाहिये। पहली-दूसरी के बालक को पढ़ाना-समझाना अलग बात है लेकिन कक्षा 11-12 के बालक के लिए अपना तरीका अलग होगा। भले ही
मनोविज्ञान में इन विधियों की भरमार है, पर व्यावहारिकता में इस पहलू को अभी ठीक से लागू नहीं किया जा सका
है।
2.
प्राथमिक विद्यालय (कक्षा 1 से 5)
इन विद्यालयों में भाषा, गणित, कला एवं खेल विषय होंगे। अभी ऐसा
है भी, परन्तु कला एवं खेल की उपेक्षा
हो रही है। भाषा लिखने का अभ्यास हो रहा है, परन्तु भाषा को बोलने में पारंगतता पर कम ध्यान दिया जा रहा है। आगे
चलकर विद्यार्थी की बोलने की झिझक बनी ही रहती है | जिससे उसके व्यक्तित्व का यह पक्ष कमजोर रह जाता है। उसे कई मोर्चों
पर केवल इसी कारण हार झेलनी पड़ती है। ऐसा ही कला एवं खेल की उपेक्षा के कारण होता
है। पता नहीं किस बच्चे में एक ओलंपिक विजेता छुपा हो। पता नहीं किस बच्चे के अंदर
एक महान कलाकार छुपा हो, जो देश-दुनिया में भारत का नाम
रोशन कर सके। यही हाल गणित के क्षेत्र में होता है। गणित का प्रायोगिक पक्ष नहीं
उभारे जाने से कई बच्चों में गणित के प्रति अरुचि पैदा हो जाती है। गणित में अरुचि
से विज्ञान विषयों के प्रति डर बिना वजह कई बच्चों के मन में बैठ जाता है।
इसलिए देश के प्राथमिक विद्यालयों में उपरोक्त सभी विषयों पर बराबर
ध्यान दिया जायेगा। लेकिन होम वर्क या गृह कार्य जैसी बीमारी नहीं होगी। जो पठन हो
गया, कक्षा में हो गया। बाद में घर पर
मौज मस्ती। एक और विशेष नियम यह होगा कि पाठ्यक्रम सभी विद्यालयों में एक सा होगा।
अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वाले विद्यार्थी वही पढ़ेंगे, जो हिन्दी माध्यम में विद्यार्थी पढ़ते हैं। उत्कृष्टता का झूठा
दिखावा बंद किया जायेगा, ताकि एक देश के भीतर दूसरा देश, नहीं बनने पाये और शिक्षा के समान अवसर सृजित हो सकें। क्या कारण है कि केवल भाषा के
चक्कर में देश में हीनता का भाव अब भी पैदा किया जा रहा है? दूसरी ओर प्रत्येक कक्षा पास करना अनिवार्य होगा। पाँचवीं की परीक्षा
पंचायत समिति स्तर पर होगी।
3.
माध्यमिक शिक्षा (कक्षा 6 से 10)
यह हमारी शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ की हड्डी होगी। पैर मजबूत होंगे
प्राथमिक शिक्षा में, और मस्तिष्क जीवन और देश को
संवारेगा, उच्च शिक्षा में। माध्यमिक
शिक्षा में सभी विषय अनिवार्य होंगे। भाषा (हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत), कला (संगीत एवं ललित), सामान्य विज्ञान, कम्प्यूटर, कृषि विज्ञान एवं वाणिज्य। ध्यान रहे कि कृषि एवं वाणिज्य पर विशेष
जोर रहेगा, क्योंकि पिछले तीन दशकों से इन
विषयों की उपेक्षा का दौर चल रहा है। उत्पादन के युग में, वाणिज्य के युग में केवल यह कहकर कि इनके शिक्षक नहीं है, इन विषयों को हटा देना कितना अव्यावहारिक है, गैर ज़िम्मेदाराना है, दायित्वहीनता है।
पाठ्यक्रम में यह भी ध्यान रखना होगा कि किसी भी विषय में पुनरावृत्ति की अधिकता न हो।
सरलता से जटिलता की ओर प्रत्येक विषय चलना चाहिये। अब यह क्या बात है कि बालक
कक्षा 6 में भी विलोम शब्द और पर्यायवाची पढ़ रहा है। कक्षा 10 में भी यही कर रहा है।
यही हाल गणित, विज्ञान आदि विषयों का है। दूसरी
बात यह है कि एक दिन में तीन से अधिक विषय नहीं पढ़ाये जाने चाहियें। तीन कक्षाओं
में अध्यापक समझा दे और तीन कक्षाओं में विद्यार्थी उसे लिख ले। बस कोई होम वर्क
नहीं, बस्ते का अधिक बोझ भी नहीं। तीन
किताबें, तीन कापियाँ। घर पर फिर वही
मस्ती और खेल कूद। खेल के लिए जिम्मेदार शिक्षक सुबह व शाम को अलग-अलग कक्षाओं व
खेलों के अनुसार कार्यक्रम बनायेंगे। खेल विषय की जिम्मेदारी खेल शिक्षक की होगी
और उस विषय की परीक्षा भी अन्य विषयों की तरह गंभीरता से ली जायेगी। व्यक्तिगत और
टीम प्रतिस्पर्धा के अनुसार दिये गये अंक अन्य विषयों के अंकों की तरह जुड़ेंगे।
ऐसा ही कला विषय के साथ होगा। 10 वीं की परीक्षा राज्य स्तर पर वर्तमान रूप में
होगी। 50 प्रतिशत मूल्यांकन आंतरिक व 50 प्रतिशत बोर्ड परीक्षा का होगा। स्थानीय
पक्षपात के तर्क को बंद कर शिक्षक पर विश्वास का माहौल फिर से बनेगा। अगर इस देश
में शिक्षक पर ही विश्वास नहीं कर सकते, तो किस पर करेंगे। एक बार फिर उन पर भरोसा करके देखो, देश बदल जायेगा। केवल आईएएस या आरएएस ही भरोसे लायक हैं, इस अंग्रेजी धारणा पर विराम लगा दो।
4.
इंटरमीडिएट कॉलेज (कक्षा 11 व 12)
इन कक्षाओं में प्रवेश कक्षा 10 की मेरिट एवं विद्यार्थी की अभिरुचि
के अनुसार होगा। पाठ्यक्रमों में कला, वाणिज्य एवं विज्ञान का प्रतिशत 40 : 20 : 40 होगा। प्रत्येक
विद्यार्थी को दो विषयों के एक समूह का चयन करना होगा। ये समूह कुछ इस प्रकार
होंगे – इतिहास, राजनीति शास्त्र, हिन्दी-अंग्रेजी साहित्य, कृषि-पशुपालन, भूगोल-अर्थशास्त्र, लेखा शास्त्र-व्यावसायिक प्रबन्ध, भौतिकी-गणित, कार्बनिक रसायन – अकार्बनिक रसायन, जीव विज्ञान-वनस्पति विज्ञान, संगीत कला-ललित कला, व्यक्तिगत खेल-समूह खेल आदि आदि। हिन्दी व अंग्रेजी भाषाएँ केवल उनको सीखनी हैं, जो इनमें आगे पढऩे में रूचि रखते हैं। वरन् सामान्य हिन्दी-अंग्रेजी
का आवश्यक ज्ञान 10 वीं तक हो चुका होता है। इतना ज्ञान विद्यार्थी ठीक से अर्जित
कर ले, तो उसके जीवन के लिए काफी है।
समस्या तो यही है कि वह 10 वीं तक की हिन्दी-अंग्रेजी भी नहीं जान पा रहा है।
ध्यान उसी पर देना है, ताकि उसे फिर से 11-12 कक्षा में
प्रार्थना पत्र,विलोम शब्द, आदि लिखने न पड़ें। कब तक हमारे विद्यार्थी प्रार्थना
पत्र और विलोम-पर्यायवाची शब्दों की बकवास में उलझे रहेंगे। अब अंग्रेज चले गये
हैं और हमें सरकारी बाबुओं की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी वैज्ञानिकों की और विशेषज्ञों की है। दूसरी तरफ इस स्तर पर
विषय कम करने से विद्यार्थी विशेषज्ञता की तरफ कदम बढ़ा लेगा। उसका मन बनेगा कि
किसी विषय को ठीक से समझे।
शिक्षण विधि में यहाँ परिवर्तन होगा। एक दिन में 6 कक्षाएँ होंगी। 4
कक्षाएँ सैद्धान्तिक और 2 प्रायोगिक। इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र आदि में भी
प्रोजेक्ट पर पूरा ध्यान होगा, ताकि विद्यार्थी की समझ गहरी हो।
इतिहास, राजनीतिक विज्ञान, हिन्दी, अंग्रेजी साहित्य में भी
प्रायोगिक कक्षाएँ होंगी, ताकि विद्यार्थी की समझ बढ़ सके।
5.
वरिष्ठ महाविद्यालय, व्यावसायिक महाविद्यालय
12 वीं की परीक्षा, संभागीय विश्वविद्यालयों द्वारा
आयोजित करवायी जायेंगी, जिसके माध्यम से संभाग के सभी
महाविद्यालयों में प्रवेश मिलेगा। इसमें भी 50 प्रतिशत आंतरिक मूल्यांकन होगा। सभी
महाविद्यालयों में एक समान 4 वर्ष का पाठ्यक्रम होगा। मेडिकल में भी और
इंजीनियरिंग में भी। इससे अधिक इन पाठ्यक्रमों को खींचना विद्यार्थी का समय खराब
करना मात्र है | अभिभावक भी परेशान हो जाते हैं।
हम हमारे मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थिति भी सुधार देंगे, कि लोग ऐम्स और आई आई टी को भूल जायेंगे। जब इनमें भी कोर्स वही है, पढ़ाने वाले भी सक्षम है, तो झूठे ढिंडोरे पीट कर क्यों बच्चों-अभिभावकों को परेशान किया जाये।
यह भी ध्यान रखना है कि कक्षा 12 के बाद किसी भी विद्यार्थी को अपना विषय बदलने की
अनुमति नहीं होगी। अभी यह हो रहा है कि एक विद्यार्थी 10 वीं के बाद विज्ञान संकाय
में प्रवेश लेता है फिर 12 वीं के बाद कला संकाय में चला जाता है। 11 वीं में उसने
एक छात्र को विज्ञान लेने से रोक दिया, अब 12 वीं में उसने एक छात्र को कला संकाय से वंचित कर दिया। मन नहीं
है, रूचि नहीं है, तो उसका नुकसान अन्य विद्यार्थी क्यों भुगते? रुचि जागृत करे या फिर 12 वीं के बाद उस स्तर के जॉब में, कार्य में लग जाये।
वरिष्ठ महाविद्यालयों में एक ही विषय छात्र को पढ़ना है। इतिहास, लेखा शास्त्र, भूगोल या फिर हिन्दी साहित्य, भौतिकी, कार्बनिक रसायन या फिर कला या
खेल। जी हाँ, कला व खेल की डिग्रियों का भी उतना
ही महत्त्व होना चाहिए, जितना मेडिकल, इंजीनियरिंग या एमबीए का। यहीं नहीं लेखा शास्त्र का स्नातक ही हमारा
सी.ए. होगा और व्यावसायिक प्रबन्ध का स्नातक एमबीए होगा। इनके लिए अलग से
संस्थानों की क्या आवश्यकता है? चौथे वर्ष में सभी महाविद्यालयों
में प्रायोगिक प्रशिक्षण होगा। इतिहास में भी, मेडिकल में भी, इंजीनियरिंग में भी और कला-खेल
में भी। यहीं नहीं, अध्ययन के दौरान ही छात्रों को
सरकार व समाज के कई कार्यों एवं सर्वे आदि के काम भी सौंपे जायेंगे। अध्ययन के साथ
आजीविका से विद्यार्थियों का आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और जिम्मेदारी भी। यानि कॉलेज
एक एन.जी.ओ. की तरह काम करेगा।
कॉलेज की परीक्षा के बाद जो मेरिट बनेगी, वही किसी जॉब या नौकरी कहें, के लिए योग्यता होगी। यह परीक्षा, संभागीय विश्वविद्यालय लेगा। पक्षपात की बातों को विराम दें और
शिक्षक पर विश्वास करें। अब विभिन्न विभागों में भर्ती कॉलेज, विश्वविद्यालय की डिग्री के आधार पर, मेरिट के आधार पर होगी। इसके लिए कोई प्रतियोगी परीक्षा नहीं होगी।
6.
प्रशासन में प्रवेश
यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर द्वारा प्रदत्त सम्मान को फिर से किसी
आरपीएससी मेम्बर द्वारा चेक करवाना न्यायोचित नहीं है। फिर क्यों, प्रोफेसर या लेक्चरर समाज में जिम्मेदारी लेंगे, जैसी की कभी लिया करते थे? देश में यह भी ध्यान रखा जायेगा कि विषय में डिग्री के अनुसार ही उस
विषय से जुड़े क्षेत्र के सभी पदों पर स्थापना होगी। आरएएस और तहसीलदार वही बनेंगे, जिन्होंने राजनीति शास्त्र और लोक प्रशासन विषयों से स्नातक परीक्षा
पास की है। यही लोग पंचायत व्यवस्था में, नगरपालिका में और सचिवालयों में लगेंगे। इसी प्रकार भूगोल के स्नातक
खान विभाग संभालेंगे, तो लेखा शास्त्र के स्नातक लेखा
विभाग में होंगे। उच्च शिक्षा की इस पद्धति से ही वर्तमान भेड़ चाल और भ्रम जाल पर
विराम लग पायेगा। दिशा स्पष्ट होगी |
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